विधानसभा में 2001 से 2016 तक हुई नियुक्तियों के बारे में महाधिवक्ता एसएन बाबुलकर ने विधिक राय देने इन्कार कर दिया है।
बाबुलकर ने स्पीकर को इस संबंध में पत्र नौ जनवरी को ही लिख दिया था लेकिन सरकार को शायद इसकी खबर तक नहीं हुई। ऐसा होता तो अपर मुख्य सचिव राधा रतूड़ी महाधिवक्ता को 19 जनवरी को पत्र न लिखती। इस पत्र में उन्होंने महाधिवक्ता को कहा था कि वह स्पीकर को विधिक परामर्श दें। यानी एक तरह से इस पूरे मामले में शासन भी अंधेरे में रहा।
कोटिया कमेटी ने 2001 के बाद विधानसभा में हुई सभी नियुक्तियों पर सवाल उठाए हैं। इससे इन पुरानी नियुक्तियों को लेकर स्पीकर के स्तर पर निर्णय होना है। बर्खास्त किए गए 2016 के बाद के कर्मचारियों में पहले से गहरी नाराजगी है। वे स्पीकर के अनिर्णय की स्थिति पर सवाल उठा रहे हैं। उस पर उत्तराखंड सरकार के महाधिवक्ता ने विधानसभा में वर्ष 2001 से 2015 के मध्य हुई तदर्थ नियुक्तियों को नियमित किए जाने की वैधता पर विधिक राय देने में असमर्थता जता कर हालात को और पेचीदा कर दिया है। उत्तराखंड विधानसभा में 2016 से 2021 के दौरान बैकडोर से भर्ती हुए कर्मचारियों को जिस सहजता के साथ बाहर का रास्ता दिखा गया, ठीक उसी प्रक्रिया से 2016 से पूर्व भर्ती हुए कर्मचारियों के मामले में वैसी सहजता नहीं दिखाई दे रही है। महाधिवक्ता ने स्पीकर को पत्र में कह दिया कि विधानसभा से निकाले गए 228 कर्मचारियों से जुड़ा मामला चूंकि उच्च न्यायालय की एकल पीठ में विचाराधीन है, इसलिए वह कोई राय देने की स्थिति में नहीं हैं। उन्होंने स्पीकर को यह सलाह भी दी कि उन्हें एकल पीठ के फैसले का इंतजार कर लेना चाहिए।विधिक राय को लेकर क्या सरकार अंधेरे में थी। क्या शासन इस बात से बेखबर था कि महाधिवक्ता स्पीकर को आठ जनवरी को ही जवाब दे चुके हैं? यह प्रश्न इसलिए उठ रहे हैं क्योंकि अपर मुख्य सचिव मुख्यमंत्री ने महाधिवक्ता को 19 जनवरी को पत्र लिखा कि वह विधानसभा सचिवालय में हुईं तदर्थ नियुक्तियों के नियमितीकरण की वैधता पर परामर्श दें।